हमारी आदतें

जब किसी भी कार्य को हम बार-बार करते हैं तो वह अन्तत: आदत बन जाती है। ये आदत अच्छी भी हो सकती है तो यह आदत बुरी भी हो सकती है। मैं यहाँ युवाओं में पड़ रही कुछ बुरी आदतों का जिक्र करना चाहता हूँ। जैसा कि मैंने आपको पूर्व में बताया कि मैं 35 वर्षों से कॉलेज स्तर के विद्यार्थियों को पढ़ा रहा हूँ एवं लगभग 10 वर्ष तक हमारे समाज के दो स्थानों के छात्रावास में अधीक्षक के रूप में कार्य कर चुका हूँ।

मैंने लगभग दस हजार युवाओं से (जिन्हें धूम्रपान की आदत थी) पूछा कि उन्हें बीड़ी-सिगरेट की आदत कैसे पड़ी? इनमें से 90 फीसदी युवाओं ने बताया कि बचपन में जब वे अपने परिवार में पिताजी को या दादाजी को या चाचा-मामा या आस-पड़ोस में रहने वाले ‘अंकल’ को धूम्रपान करते देखते थे तो उन्हें लगता था कि ‘धूम्रपान’ करना कुछ अच्छा होता होगा या ऐसा कोई रिवाज होगा या जैसे पानी पीना या भोजन करना आवश्यक है ऐसे ही धूम्रपान भी बड़े होने पर आवश्यक होता होगा यानि बचपन में बड़ों को देखकर ऐसा मन बन गया था। याद रखें बच्चे समाज में बड़ों को देखकर ही सीखते हैं। यानि अधिकाँश बुरी आदतों का बीज बचपन में ही बड़ों की बुरी आदतों को देखकर पनपने लगता है और जब थोड़े बड़े होने या पन्द्रह-बीस वर्ष के होने पर घर से ज्यादा बाहर रहने की आजादी मिलते ही इन बुरी आदतों के जाल में फंस जाते हैं और पहले से ही धूम्रपान सीख चुके दोस्तों का दबाव/आग्रह इसमें खाद-पानी का काम करने लगते हैं।

धूम्रपान की शुरुआत सर्वप्रथम शौकिया तौर पर होती है और आगे चलकर यह एक आदत बन जाती है। ठीक ऐसे ही आज तम्बाकू व गुटका खाने की आदत भी युवाओं में तेजी से पड़ती जा रही है। हालाँकि ये आदतें कोई एक दिन में नहीं पड़ती है। अधिकाँश युवा बचपन में ही परिवार में आस-पड़ोस में या समाज में बहुत लोगों को गुटका/तम्बाकू खाते देख चुके होते हैं। रही सही कसर पूरी कर देते हैं बड़े ही प्रभावशाली तरीके से टीवी, रेडियो, अखबारों में दिये जाने वाले ‘विज्ञापन‘।

 

संचार के इन माध्यमों से बार-बार ऐसे उत्पादनों को दिखाकर युवा मस्तिष्क में इनके प्रति आकर्षण पैदा कर दिया जाता है। जब बार-बार कोई विज्ञापन दिखाया जाता है तो समाज सेवा इसकी गिरफ्त में आता चला जाता है। युवा घर में टीवी धारावाहिक देखने पर हर 5-10 मिनट पर विज्ञापन देखता है। ‘दाने-दाने में केसर का दम’, ‘ऊँचे लोग-ऊँची पसन्द’, ‘….खाने/पीने वालों की शान ही अलग’, अखबार पढऩे पर उसमें भी ऐसे ही विज्ञापन, घर से बाहर निकलते हैं तो लगभग हर मोड़/चौराहों पर भी चमचमाते हॉर्डिंग्स पर भी ऐसे ही विज्ञापन।

ये सब देखते-देखते जब वह युवा अपने स्कूल, कॉलेज या कार्यालय पहुँचता है और जब उसे उसका कोई साथी सिगरेट ऑफर करता है या हथेली पर गुटका/तम्बाकू रखकर हाथ आगे बढ़ाता है तो उस युवा का मन भी मचल उठता है, प्रारम्भ में थोड़ी ना-नुकूर और झिझक के बाद दोस्त द्वारा ऑफर की गई सिगरेट से एक-दो कश लेता है। मुँह का जायका थोड़ा कड़वा सा होता है, हल्की फुल्की खाँसी आ सकती है, सिर में थोड़ा चक्कर-सा महसूस होता है। लेकिन दो-चार दिन बाद यह आदत में तब्दील हो जाता है। आखिर शिकार फँस ही गया।

ठीक ऐसे ही जब कोई दोस्त, या रिश्तेदार या जानकार व्यक्ति ‘गुटका’, बीयर या शराब चख लेने का अनुरोध करता है तो कमजोर इच्छा शक्ति (Weak will power) तथा सकारात्मक दृढ़ता की कमी (Lack of Assertiveness) वाले लोग ऐसे अनुरोध को ठुकरा नहीं पाते हैं और ऑफर करने वाले का ‘मान’ रखने के नाम पर ‘गुटका’, ‘बीयर/शराब’ का सेवन कर ही लेते हैं।

ध्यान रखें सकारात्मक दृढ़ता की कमी व कमजोर इच्छा शक्ति वाले लोग जल्दी ही बुरी आदतों के शिकार बनते हैं, क्योंकि उनमें सही को सही व गलत को गलत कहने की हिम्मत नहीं होती। दुनिया का कोई भी व्यक्ति तम्बाकू से बने उत्पादकों को स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद नहीं बतायेगा। ये सदैव हानिकारक ही होते है। भारत में रोजाना लगभग 2500 लोगों की मृत्यु, तम्बाकू जनित बीमारियों से होती है। शराब पीने की आदत से लाखों परिवार बर्बाद हो जाते हैं।